देश को जगाने..सरकार को हिलाने वाले 'अन्ना' की जीवनी



अन्‍ना हजारे का असली नाम किसन बापट बाबूराव हजारे (प्यार से लोग अन्ना कहते) हैं।


हजारे का जन्म 15 जनवरी 1940 को महाराष्ट्र के अहमद नगर के भीनगर गांव में हुआ। पिता का नाम बाबूराव हजारे मां का नाम लक्ष्मीबाई हजारे है। अन्ना का बचपन बहुत गरीबी में गुजरा। पिता मजदूर थे, दादा फौज में थे।

अन्ना का पैतृक गांव अहमद नगर जिले में स्थित रालेगन सिद्धि में है। हजारे के दादा की मौत के सात साल बाद अन्ना का परिवार रालेगन आ गया। अन्ना के 6 भाई हैं। परिवार में व्याप्त आर्थिक तंगी को देखते हुए अन्ना की बुआ उन्हें मुम्बई ले गईं। यहां उन्होंने सातवीं तक पढ़ाई की।

कठिन हालातों में परिवार को देख कर उन्होंने परिवार का बोझ कुछ कम करने की सोंची। और वह दादर स्टेशन के बाहर एक फूल बेचनेवाले की दुकान में 40 रूपए महीने की पगार में काम करने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने खुद फूलों की दुकान खोल ली और अपने दो भाइयों को भी रालेगन से बुला लिया।

1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान युवाओं को सेना में शामिल होने की सरकार की अपील पर वे मराठा रेजीमेंट में बतौर ड्राइवर नियुक्त हुए। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उनकी पूरी यूनिट शहीद हो गई। गोली अन्ना को भी लगी, लेकिन बच गए। जिस ट्रक को अन्ना चला रहे थे, उस पर गोलाबारी हुई थी।

इस घटना के 13 साल बाद सेना से रिटायर हुए लेकिन अपने पैतृक गांव महाराष्ट्र के अहमदनगर में भीगांव नहीं गए। पास के रालेगांवसिद्धि में रहने लगे। वे कहते हैं कि समाजसेवा की प्रेरणा उन्हें स्वामी विवेकानंद की एक पुस्तक से मिली। उन्होंने अपना जीवन समाजसेवा को समर्पित कर दिया।

कौन हैं अन्ना हजारे


महाराष्ट्र के अहमदनगर के पास भिंगर गांव में 15 जनवरी 1940को बाबूराव हजारे की पत्नी लक्ष्मीबाई ने पहले पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम रखा गया किसन। जिन्हें हम आज अन्ना हजारे के नाम से जानते हैं। अन्ना के दादा भिंगर में ब्रिटिश सेना में नौकरी करते थे और उनके पिता वहीं के एक आयुर्वेदिक आश्रम में छोटा-मोटा काम करते थे।

1945 में अन्ना के दादा की मृत्यु हो गई, लेकिन 1952 तक अन्ना का परिवार भिंगर मे ही बसा रहा। छह बच्चों के परिवार को पालना जब अन्ना के पिता को मुश्किल लगने लगा, तब वह 1952 में अपने पुश्तैनी गांव रालेगांव सिद्धी वापस आ गए। लेकिन हजारे परिवार की मुश्किलें फिर भी कम नहीं हुईं। यहां आकर भी उनका संघर्ष जारी रहा। अन्ना की चाची, जिन्हें कोई संतान नहीं थी, उन्हें अपने साथ मुंबई ले आईं।

मुंबई आकर छह वर्ष के अन्ना ने स्कूल जाना शुरू किया और सातवीं कक्षा तक की अपनी पढ़ाई पूरी की। उसके बाद उन्होंने अपने परिवार के खस्ता हालत को देखते हुए मुंबई के दादर इलाके में फूल बेचना शुरू किया। फूलों का धंधा चल पड़ा और वहां अन्ना ने एक दुकान खोल ली। बढ़ते कारोबार में हाथ बंटाने के लिए उन्होंने अपने दो भाइयों को भी गांव से बुला लिया। उनके द्वारा धंधा संभालने के बाद 1963 में अन्ना अपने दादा के नक्शेकदम पर चलते हुए भारतीय फौज में बतौर वाहन चालक के रूप में भर्ती हो गए।

सन् 1965 के भारत पाक युद्ध के दौरान खेमकरण सेक्टर में दुश्मनों के गोलियों से बच निकलने वाले अन्ना अकेले वाहन चालक थे। 1975 में अन्ना फौज से स्वेच्छा से निवृत्ति लेकर वापस अपने गांव रालेगांव सिद्धी आए और वहां के लोगों को संगठित कर वॉटर द्रोड मैनेजमेंट, दारू बंदी, सामूहिक विवाह, छुआछूत, ग्रामीण विकास और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम छ़ेडकर रालेगाव सिद्धी को एक मॉडल गांव के रूप में विकसित किया। उनके इस कामों के लिए भारत सरकार ने उन्हे पद्मश्री और पद्मभूद्गाण जैसे सम्मानों से नवाजा।

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